یکشنبه ۲ دی ۱۴۰۳ ایران ۰۹:۴۳
ساقيا داني كه مخموريم در ده جام را |
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ساعتي آرام ده اين عمر بی آرام را |
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مير مجلس چون تو باشی با جماعت در نگر |
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خام در ده پخته را و پخته در ده خام را |
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قالب فرزند آدم آز را منزل شدست |
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انده پيشی و بيشی تيره كرد ايام را |
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نه بهشت از ما تهي گردد نه دوزخ پر شود |
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ساقيا در ده شراب ارغواني فام را |
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قيل و قال بايزيد و شبلي و كرخی چه سود |
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كار كار خويش دان اندر نورد اين نام را |
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تا زماني ما برون از خاك آدم دم زنيم |
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ننگ و نامي نيست بر ما هيچ خاص و عام را |
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فتنه را در عالم آشوب و شور |
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نيستم با درد عشقت لحظهاي |
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خالي از غمها و از تيمارها |
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مينهم جان را و دل را خارها |
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مرد هشيار در اين عهد كمست |
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زيركان را ز در عالم و شاه |
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هست پنهان ز سفيهان چو قدم |
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و آن كه راهست ز حكمت رمقي |
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خونش از بيم چو شاخ به قمست |
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و آن كه بيناست درو از پی امن |
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از عم و خال شرف مر همه را |
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هر كجا جاه در آن جاه چهست |
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هر كجا سيم در آن سيم سمست |
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گر چه اندر سقر اندر ارمست |
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رسته نزد همه كس فتنه گياه |
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هر كه را بينی پر باد ز كبر |
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آن نه از فربهی آن از ورمست |
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از يكي در نگري تا به هزار |
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رخ به سيمين برو سيمين صنمست |
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دل به زور و زر و خيل و حشمست |
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بهر نان پشت دل و دين به خمست |
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فقها را غرض از خواندن فقه |
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قبلهشان شاهد و شمع و شكمست |
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